Saturday, September 13, 2014

कुर्बतों मे भी जुदाई के ज़माने मांगे

कुर्बतों मे भी जुदाई के ज़माने मांगे,
दिल वो बीमार की रोने के बहाने मांगे.

अपना ये हाल के ज़ी हार चूके लूट भी चूके,
और मुहब्बत वही अंदाज पुराने मांगे.

हम ना होते तो किसी और के चर्चे होते,
खलकते-शहर तो कहने को फ़साने मांगे.

दिल किसी हाल पे माने ही नहीं ज़ाने-फ़राज’,
मिल गये तुम भी तो क्या और ना ज़ाने मांगे.
-अहमद फ़राज

Monday, September 1, 2014

डब-डबा आई वो आँखे जो मेरा नाम आया

डब-डबा आई वो आँखे जो मेरा नाम आया,
इश्क़ नाकाम सही फिर भी बहुत काम आया.

लज्ज़ते-मर्ग़े-मुहब्बत कोई उस से पूछे,
जिसके लब़ पर दमे-आख़िर भी तेरा नाम आया.

ज़िंदगी तेरे तसव्वुर से अलग रह ना सकी,
नग़मा कोई हो पर साज़ यही काम आया.

हमपे ऐसी भी ग़मे-इश्क में रातें गुज़रीं,
जब तक आंसू ना बहें दिल को ना आराम आया.
- तस्क़ीन कुरैशी

रस्मे-उल्फ़त सिखा गया कोई

रस्मे-उल्फ़त सिखा गया कोई,
दिल की दुनिया पे छा गया कोई.

ता-कयामत किसी तरह ना बुझे,
आग ऐसी लगा गया कोई.

दिल की दुनिया उजाड़ सी क्यूँ है,
क्या यहाँ से चला गया कोई.

वक्ते-रुख़सत गले लगा कर 'दाग़',
हंसते-हंसते रुला गया कोई.

- दाग़ देहलवी

जितने अपने थे सब पराये थे

जितने अपने थे, सब पराये थे,
हम हवा को गले लगाए थे.

जितनी कसमे थी, सब थी शर्मिंदा,
जितने वादे थे, सर झुकाये थे.

जितने आंसू थे, सब थे बेगाने,
जितने मेहमां थे, बिन बुलाए थे.

सब किताबें पढ़ी-पढ़ाई थीं,
सारे किस्से सुने-सुनाए थे.

एक बंजर जमीं के सीने में,
मैने कुछ आसमां उगाए थे.

सिर्फ दो घूंट प्यास कि खातिर,
उम्र भर धूप मे नहाए थे.

हाशिए पर खड़े हूए है हम,
हमने खुद हाशिए बनाए थे.

मैं अकेला उदास बैठा था,
सामने कहकहे लगाए थे.

है गलत उसको बेवफा कहना,
हम कौन सा धुले-धुलाए थे.

आज कांटो भरा मुकद्दर है,
हमने गुल भी बहुत खिलाए थे.
-
डॉ राहत इंदौरी

इंतेजामात नये सिरे से संभाले जायें

इंतेजामात नये सिरे से संभाले जायें,
जितने कमज़र्फ हैं महफिल से निकाले जायें.

मेरा घर आग कि लपटों मे छिपा है लेकिन,
जब मज़ा है तेरे आंगन मे रौशनी जाये.

गम सलामत है तो पीते ही रहेंगे लेकिन,
पहले मयख़ाने की हालत संभाली जाये.

खाली वक्तों में कहीं बैठ के रो लें यारों,
फुरसतें हैं तो समन्दर ही खंगाले जायें.

खाक मे यूँ ना मिला जब्त की तौहीन ना कर,
ये वो आंसू हैं जो दुनिया को बहा ले जायें.

हम भी प्यासे हैं ये एहसास तो हो साक़ी को,
खाली शीशे हीं हवाओं मे उछाले जायें.

आओ शहर मे नए दोस्त बनायें राहत,
आस्तिनों में चलो सांप ही पाले जायें.

- डॉ राहत इंदौरी

लहू ना हो तो क़लम तर्जुमा नही होता

लहू ना हो तो क़लम तर्जुमा नही होता,
हमारे दौर में आंसू जुबां नही होता.

जहां रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा,
किसी चिराग़ का अपना मकां नही होता.

ये किस मक़ाम पर लाई है मेरी तन्हाई,
के मुझ से आज कोई बद़गुमा नही होता.

मैं उस को भूल गया हूँ ये कौन मानेगा,
किसी चिराग़ के बस में धुंआ नही होता.

वसीमसदियों की आँखों से देखिए मुझको,
वो लफ्ज़ हूँ जो कभी दास्तां नही होता.

-वसीम बरेलवी

हजार कांटो से दामन छुड़ा लिया मैंने

हजार कांटो से दामन छुड़ा लिया मैंने,
अना (अहंकार) को मार के सब कुछ बचा लिया मैंने.

जहाँ भी जाऊँ नजर मे हूँ एक जमाने की
ये कैसा खुद को तमाशा बना लिया मैंने.

अंधेरे बीच मे आ जाते इससे पहले ही
दीया तुम्हारे दीये से जला लिया मैंने.

अज़ीम थे ये दुआओं को उठने वाले हाथ,
ना जाने कब उन्हे कासा (भिक्षापात्र) बना लिया मैंने.

जले तो हाथ, मगर हाँ हवा के हमले से,
किसी चिराग़ की लौ को बचा लिया मैंने.

तराशना ही था हीरा तो मेरा तेरा क्या
किसी भी राह का पत्थर उठा लिया मैंने.

-वसीम बरेलवी

कहां रोना है मुझे दीदा-ए-पुरनम समझता है

कहां रोना है मुझे दीदा-ए-पुरनम समझता है,
मैं मौसम को समझता हूँ मुझे मौसम समझता है.

ज़बां दो चाहने वालों को शायद दूर कर देगी,
मैं बंगला कम समझता हूँ वो उर्दू कम समझता है.

हमारे हाल से सब चाहने वाले हैं नावाकिफ,
मगर एक बेवफा है जो हमारा ग़म समझता है.

मुहब्बत करने वाला जां कि परवा नही करता,
वो अपने पाँव कि जंजीर को रेशम समझता है.

कहाँ तक झील मे पानी रहे आँखे समझती हैं,
कहाँ तक जख़्म को भरना है मरहम समझता है.

- मुनव्वर राणा

उस ने सुकूते-शब़ में भी अपना पयाम रख दिया

उस ने सुकूते-शब़ में भी अपना पयाम रख दिया,
हिज्र की रात बाम पर माहे-तमाम रख दिया.

आमदे-दोस्त की नाविद कूए-वफा में आम थी,
मैंने भी इक चिराग-सा दिल सरे-शाम रख दिया.

देखो ये मेरे ख्वाब थे देखो ये मेरे जख्म हैं,
मैने तो सब हिसाबे-ज़ान बर-सरे-आम रख दिया.

उस ने नजर नजर मे ही ऐसे भले सुखन कहे,
मैने तो उस के पाँवो में सारा कलाम रख दिया.

शिद्दते-तिश्नगी मे भी गैरते-मैक़शी रही,
उस ने जो फेर ली नज़र मैने भी ज़ाम रख दिया.

और फ़राज चाहिए कितनी मुहब्बतें तुझे,
के माँओ ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया.

-अहमद फ़राज

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं,
सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं.

सुना है रब्त है उस को खराब हालों से,
सो अपने आप को बरबाद करके देखते हैं.

सुना है दर्द कि गाहक है चश्मे-नाजुक उसकी,
सो हम भी उस की गली से गुजर कर देखते हैं.

सुना है बोले तो बातों से फुल झड़ते हैं,
ये बात है तो चलो बात करके देखते हैं.

सुना है रात उसे चांद ताकता रहता है,
सितारे बामे-फ़लक से उतर कर देखते हैं.

सुना है हश्र हैं उसकी गज़ाल सी आँखे,
सुना है उसको हिरन दश्त भर के देखते हैं.

सुना है दिन को उसे तितलीयाँ सताती हैं,
सुना है रात को जुगनु ठहर के देखते हैं.

अब उस के शहर में ठहरें की कुछ कर जाएँ,
फ़राजआओ सितारे सफर के देखते हैं.

-अहमद फ़राज

ना किसी की आँख का नूर हूँ

ना किसी की आँख का नूर हूँ ना किसी के दिल का करार हूँ,
जो किसी के काम ना आ सके मैं वो एक मुश्ते-गुबार हूँ.

ना तो मैं किसी का हबीब हूँ ना तो मैं किसी का रक़ीब हूँ,
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वा दयार हूँ.

मेरा रंग-रुप बिगड़ गया मेरा यार मुझसे बिछड़ गया,
जो चमन फ़िजा मे उजड़ गया मैं उसी कि फसले-बहार हूँ.

पढ़े फातेहा कोई आये क्यूँ कोई चार फूल चढ़ाये क्यूँ,
कोई आके शमां जलाये क्यूँ मै वो बेकसी का मज़ार हूँ.


- बहादुरशाह ज़फर

लाई हयात आए कज़ा ले चली चले

लाई हयात आए कज़ा ले चली चले,
ना अपनी खुशी आए ना अपनी खुशी चले.

बेहतर तो यही है के ना दुनिया से दिल लगे,
पर क्या करें जो काम ना बेदिल्लगी चले.

हो उम्रे-खिज्र भी तो कहेंगे बा-वक्ते-मर्ग,
हम क्या रहें यहाँ अभी आए अभी चले.

दुनिया ने किस का राहे-फऩा में दिया है साथ,
तुम भी चले चलो यूँ ही जब तक चली चले.

- जौक

हदे-निगाह तक ये ज़मी स्याह फिर

हदे-निगाह तक ये ज़मी स्याह फिर,
निकली है जुगनुओं कि भटकती सिपाह फिर.

होठों पे आ रहा है कोई नाम बार बार,
सन्नाटों की तिलिस्म को तोड़ेगी आह फिर.

पिछले सफर की गर्द को दामन से झाड़ दो,
आवाज दे रही है कोई सूनी राह फिर.

बेरंग आसमां को देखेगी कब तलक़,
मंजर नया तलाश करेगी निगाह फिर.

ढीली हुई गिरफ्त जुनून की के जल उठा,
ताके-हवस में कोई चरागे-गुनाह फिर.

- शहरयार

कैसे मानू के जमाने की खबर रखती है

कैसे मानू के जमाने की खबर रखती है,
गर्दिशे-वक्त तो बस मुझपे नज़र रखती है.
मेरे पैरों की थकन रुठ ना जाना मुझसे,
एक तू ही तो मेरा राज़े-सफर रखती है.

धूप मुझको जो लिए फिरती है साये-साये,
है तो आवारा, मगर ज़ेहन मे घर रखती है.
दोस्ती तेरे दरख्तों मे हवाएँ भी नही,
दुश्मनी अपने दरख्तों मे समर रखती है.

सफर माना मेरा जारी नही है,
मगर हिम्मत अभी हारी नही है.
बुजुर्गों से मुआफ़ी चाहता हूँ,
किसी के बस की सरदारी नही है.

फजां मे हर तरफ चीखें हैं ताहिर,
किसी बच्चे की किलकारी नही है.
सफर माना मेरा जारी नही है,
मगर हिम्मत अभी हारी नही है.

-ताहिर फ़राज

Welcome to My blog

Just got inspired by Pratul sir and created my own blog. Quite a medium to express urself.