Monday, September 1, 2014

ना किसी की आँख का नूर हूँ

ना किसी की आँख का नूर हूँ ना किसी के दिल का करार हूँ,
जो किसी के काम ना आ सके मैं वो एक मुश्ते-गुबार हूँ.

ना तो मैं किसी का हबीब हूँ ना तो मैं किसी का रक़ीब हूँ,
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वा दयार हूँ.

मेरा रंग-रुप बिगड़ गया मेरा यार मुझसे बिछड़ गया,
जो चमन फ़िजा मे उजड़ गया मैं उसी कि फसले-बहार हूँ.

पढ़े फातेहा कोई आये क्यूँ कोई चार फूल चढ़ाये क्यूँ,
कोई आके शमां जलाये क्यूँ मै वो बेकसी का मज़ार हूँ.


- बहादुरशाह ज़फर

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